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कविता

चोट

ओमप्रकाश वाल्मीकि


पथरीली चट्टान पर
हथौड़े की चोट
चिनगारी को जन्‍म देती है
जो गाहे-बगाहे आग बन जाती है

आग में तपकर
लोहा नर्म पड़ जाता है
ढल जाता है
मनचाहे आकार में
हथौड़े की चोट में

एक तुम हो,
जिस पर किसी चोट का
असर नहीं होता

 


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